Jeevan Ki Khoj
जीवन क्या है?
उस जीवन के प्रति प्यास तभी पैदा हो सकती है, जब हमें यह स्पष्ट बोध हो
जाए, हमारी चेतना इस बात को ग्रहण कर ले कि जिसे हम जीवन जान रहे हैं, वह
जीवन नहीं है । जीवन को जीवन मान कर कोई व्यक्ति वास्तविक जीवन की तरफ कैसे
जाएगा? जीवन जब मृत्यु की भांति दिखाई पड़ता है, तो अचानक हमारे भीतर कोई
प्यास, जो जन्म-जन्म से सोई हुई है, जाग कर खड़ी हो जाती है । हम दूसरे
आदमी हो जाते हैं। आप वही हैं, जो आपकी प्यास है । अगर आपकी प्यास धन के
लिए है, मन के लिए है, अगर आपकी प्यास पद के लिए है, तो आप वही हैं, उसी
कोटि के व्यक्ति हैं। अगर आपकी प्यास जीवन के लिए है, तो आप दूसरे व्यक्ति
हो जाएंगे। आपका पुनर्जन्म हो जाएगा।
ओशो
पुस्तक के कुछ मुख्य विषय-बिंदुः
वास्तविक जीवन क्या है?
चित्त की स्वतंत्रता ही सत्य का मार्ग है
न तो विचार द्वार है न अविचार द्वार है-द्वारर है निर्विचार-सजगता
जीवन को तो वही उपलब्ध होगा, जो जागरण के पक्ष में हो.
एक तो जीवन में प्यास चाहिए। उसके बिना कुछ भी संभव नहीं होगा। और बहुत कम
लोगों के जीवन में प्यास है। प्यास उनके ही जीवन में संभव होगी, परमात्मा
की या सत्य की, जो इस जीवन को व्यर्थ जानने में समर्थ हो गए हों। जिन्हें
इस जीवन की सार्थकता प्रतीत होती है--जब तक सार्थकता प्रतीत होगी तब तक वे
प्रभु के जीवन के लिए लालायित नहीं हो सकते हैं। इसलिए मैंने कहा कि इस
जीवन की वास्तविकता को जाने बिना कोई मनुष्य परमात्मा की आकांक्षा से नहीं
भरेगा। और जो इस जीवन की वास्तविकता को जानेगा, वह समझेगा कि यह जीवन नहीं
है, बल्कि मृत्यु का ही लंबा क्रम है। हम रोज-रोज मरते ही जाते हैं। हम
जीते नहीं हैं। यह मैंने कहा।
दूसरी सीढ़ी में हमने विचार किया कि यदि प्यास हो, तो क्या अकेली प्यास मनुष्य को ईश्वर तक ले जा सकेगी?
निश्चित
ही प्यास हो सकती है और मार्ग गलत हो सकता है। उस स्थिति में प्यास तो
होगी, लेकिन मार्ग गलत होगा तो जीवन और असंतोष और असंताप से और भी दुख और
भी पीड़ा से भर जाएगा। साधक अगर गलत दिशा में चले, तो सामान्यजन से भी
ज्यादा पीड़ित हो जाएगा। यह हमने दूसरे ‘मार्ग’ के संबंध में विचार किया।
मार्ग
के बाबत मैंने कहा कि विश्वास भी मार्ग नहीं है, क्योंकि विश्वास भी अंधा
होता है। और अविश्वास भी मार्ग नहीं है, क्योंकि अविश्वास भी अंधा होता है।
नास्तिक और आस्तिक दोनों ही अंधे होते हैं। और जिसके पास आंख होती है, वह न
तो आस्तिक रह जाता है और न नास्तिक रह जाता है। और जो व्यक्ति समस्त
पूर्व-धारणाओं से--आस्तिक होने की, नास्तिक होने की; हिंदू होने की,
मुसलमान होने की; यह होने की, वह होने की--समस्त वादों, समस्त सिद्धांतों
और शास्त्रों से मुक्त हो जाता है, वही मनुष्य, उसी मनुष्य का चित्त
स्वतंत्र होकर परमात्मा के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। जो किसी विचार से
बंधा है, जो किसी धारणा के चौखटे में कैद है, जिसका चित्त कारागृह में है,
वह मनुष्य भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। परमात्मा तक पहुंचने में केवल
वही सुपात्र बन सकेंगे, जो परमात्मा की भांति स्वतंत्र और सरल हो जाएं।
जिनके चित्त स्वतंत्रता को उपलब्ध होंगे, वे ही केवल सत्य को पा सकते हैं।
यह हमने विचार किया।
और आज तीसरी सीढ़ी पर ‘द्वार’ के संबंध में विचार करना चाहते हैं।
परमात्म-जीवन का द्वार क्या है? किस द्वार से प्रवेश होगा?
मार्ग भी ठीक हो, लेकिन अगर द्वार बंद रह जाए, तो प्रवेश असंभव हो जाता
है। प्यास हो, मार्ग भी हो, लेकिन द्वार बंद हो, तो भी प्रवेश नहीं होता।
इसलिए ‘द्वार’ पर विचार करेंगे। क्या द्वार होगा?
निश्चित ही,
जिस द्वार से हम परमात्मा से दूर होते हैं उसी द्वार से हम परमात्मा में
प्रवेश भी करेंगे। जो दरवाजा आपको भीतर लाया है इस भवन के, वही दरवाजा इस
भवन के आपको बाहर ले जाएगा। द्वार हमेशा बाहर और भीतर जाने का एक ही होता
है, केवल हमारी दिशा बदल जाती है, हमारी उन्मुखता बदल जाती है। जब हम बाहर
जाते हैं तब और जब हम भीतर आते हैं तब, दोनों ही स्थितियों में द्वार वही
होता है, केवल हमारे चलने की दिशा बदल जाती है।
कौन सी चीज हमें परमात्मा के बाहर ले आई है, उस पर अगर विचार करेंगे, तो वही चीज हमें परमात्मा के भीतर भी ले जा सकेगी।
ओशो




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